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गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

पशुओं में कुपोषण की वजह से बांझपन की बीमारियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। खास कर गोवंश में देखी जा रही है। गोवंश में बांझपन के बढ़ते मामलों के का सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। इसका मतलब है, कि पशुओं को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है। इस गंभीर समस्या से किसानों के साथ-साथ पशुपालन से संबंधित समस्त संस्थाऐं भी काफी परेशान हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय वेटनरी कॉलेज के अधिष्ठाता डॉ राजीव सिंह ने बताया है, कि व्यस्क पशुओं में कम वजन व जननागों के अल्प विकास से पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी देखने को मिल रही है। जैसा कि उपरोक्त में बताया गया है, कि इसका मुख्य कारण कुपोषण है। इफ्को टोकियो जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड के वित्तीय सहयोग से कृषि विश्व विद्यालय और पशुपालन विभाग द्वारा मेरठ के ग्राम बेहरामपुर मोरना ब्लॉक जानी खुर्द में निशुल्क पशु स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कुलपति डॉ के.के. सिंह एवं पशुपालन विभाग के अपर निदेशक डॉ अरुण जादौन के निर्देश में हुआ है।

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इस उपलक्ष्य पर परियोजना के मार्ग दर्शक डॉ राजवीर सिंह ने कहा है, कि मादा पशुओं को संतुलित आहार के साथ-साथ प्रोटीन और खनिज मिश्रण जरूर देना चाहिए। जिसकी सहायता से उनकी गर्भधारण क्षमता बरकरार रहे। परियोजना प्रभारी डॉ अमित वर्मा का कहना है, कि पशुओं में खनिज तत्वों के अभाव की वजह से भूख ना लगना, बढ़वार एवं प्रजनन क्षमता में कमी जैसे समय पर गर्मी में ना आना, अविकसित संतानो की उत्पत्ति, दूध उत्पादन में कमी, एनीमिया इत्यादि समस्याऐं आ सकती हैं। बतादें, कि पशुओं को प्रतिदिन 30 - 50 ग्राम मिनरल मिक्सचर पाउडर पशु आहार के लिए जरूर देना चाहिए। पशु स्वास्थ्य शिविर में पशु चिकित्सा महाविद्यालय कॉलेज मेरठ के विशेषज्ञों इनमें डॉ. अमित वर्मा, डॉ अरविन्द सिंह, डॉ अजीत कुमार सिंह, डॉ विकास जायसवाल, डॉ प्रेमसागर मौर्या, डॉ आशुतोष त्रिपाठी और डॉ रमाकांत इत्यादि की टीम के द्वारा 157 पशुओं को कृमिनाशक, बाँझपन प्रबंधन, गर्भावस्था निदान, रक्त व गोबर की जाँच जैसी पशु चिकित्सा सेवाएं और तदानुसार मुफ्त दवाएं भी प्रदान की गईं। पशु चिकित्साधिकारी डॉ रिंकू नारायण एवं डॉ विभा सिंह ने पशुपालन के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले किसान क्रेडिट कार्ड तथा सब्सिड़ी योजनाओं के संबंध में जानकारी प्रदान की। प्रशांत कौशिक ग्राम प्रधान समेत अन्य ग्रामवासियों ने शिविर के आयोजन हेतु कृषि विवि की कोशिशों की सराहना करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया।

सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

सरसों की फसल का रकबा बढ़ गया है क्योकि खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति में आये अंतर की वजह से इसकी कीमत अच्छी रहने की उम्मीद है. इसी वजह से इसकी बुबाई भी ज्यादा मात्रा में की गई है. अभी हमारे किसान भाई सरसों में पानी और खाद लगा कर उसकी बढ़वार और पेड़ पर कोई रोग न आये उसके ऊपर ध्यान केंद्रित रख रहे हैं. सरसों की खेती में लागत काम और देखभाल ज्यादा होती है क्योकि इसको कच्ची फसल बोला जाता है. इसको कई प्रकार के कीटों से खतरा रहता है इनमे मुख्यतः माहू मक्खी, सुंडी, चेंपा आदि है. अगर इसका समय से उपचार न किया जाये तो ये 10 से 90% तक फसल को नुकसान कर जाता है. इसलिए यह अति आवश्यक है कि इन कीटों की सही पहचान कर उचित और समय पर रोकथाम की जाए. यदि समय रहते इन रोगों एवं कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो सरसों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है.

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मेरीखेती के WhatsApp ग्रुप के सदस्य ने हमें अपने खेत का फोटो भेजा तथा इस पर जानकारी चाही इस पर हमारे सलाहकार मंडल के सदस्य श्री दिलीप यादव जी ने उनकी समस्या का समाधान किया. नीचे दिए गए फोटो को देखकर आप भी अपने उचित सलाह हमारे किसान भाइयों को दे सकते हैं.

सरसों के प्रमुख कीट और नियंत्रण:

आरा मक्खी:

इस समय सरसों में चित्रित कीट व माहू कीट का प्रकोप होने का डर ज्यादा रहता है. इसके असर से शुरू में फसलों के छोटे पौधों पर आरा मक्खी की गिडारें ( सुंडी, काली गिडार व बालदार गिडार) नुकसान पंहुचाती हैं, गिडारें काले रंग की होती हैं जो पत्तियों को बहुत तेजी के साथ किनारों से विभिन्न प्रकार के छेद बनाती हुई खाती हैं जिसके कारण पत्तियां बिल्कुल छलनी हो जाती हैं. इससे पेड़ सूख जाता है और समाप्त हो जाता है. उपाय: मेलाथियान 50 ई.सी. की 200 मि.ली. मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें, तथा पानी भी लगा दें. जिससे की नीचे आने वाले कीट डूब कर मर जाएँ.

माहू या चेंपा:

यह रोग देर से बोई गई प्रजाति पर ज्यादा आता है लेकिन कई बार मौसम अगर जल्दी गरम हो जाये और फसल पर फलियां बन रही हों या कच्ची हो तो इसका ज्यादा नुकसान होता है. यह फसल को पूरी तरह से ख़तम कर देता है. उपाय: बायोएजेन्ट वर्टिसिलियम लिकेनाइ एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं 7 दिन के अंतराल पर मिथाइल डिमेटोन (25 ई.सी.) या डाइमिथोएट (30 ई.सी) 500 मि.ली./हेक्टेयर का छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता:

लक्षण- जब सरसों के पौधे 15 से 20 दिन के होते हैं तब पत्तों की निचली सतह पर हल्के बैंगनी से भूरे रंग के धब्बे नजर आते हैं बहुत अधिक नमी में इस रोग का कवक तने तथा स्टेग हैड’ पर भी दिखाई देता है| यह रोग फूलों वाली शाखाओं पर अधिकतर सफेद रतुआ के साथ ही आता हैं|

सफेद रतुआ

लक्षण- सरसों की पत्तियों के निचली सतह पर चमकीले सफेद उभरे हुए धब्बे बनते हैं, पत्तियों को ऊपरी सतह पीली पड़ जाती हैं, जिससे पत्तियों झुलसकर गिर जाती हैं एवं पौधे कमजोर हो जाते हैं| रोग की अधिकता में ये सफेद धब्वे तने और कलियों पर भी दिखाई देते नमी रहने पर रतुआ एवं रोमिल रोगो के मिले जुले धन्ये ‘स्टेग हैड” (विकृत फ्लों) पर साफ दिखाई देते हैं|

काले धब्बों का रोग

लक्षण- सरसों की पत्तियों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे गोल धब्बे बनते हैं, जो बाद में तेजी से बढ़ कर काले और बड़े आकार के हो जाते हैं, एवं इन धब्बों में गोल छल्ले साफ नजर आते हैं| रोग की अधिकता में बहुत से धवे आपस में मिलकर बड़ा रूप ले लेते हैं तथा फलस्वरूप पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं, तने और फलों पर भी गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं|

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तना गलन

लक्षण- सरसों के तनों पर लम्बे व भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं, जिन पर बाद में सफेद फफूंद की तह बन जाती है, यह सफेद फंफूद पत्तियों, टहनियों और फलियों पर भी नजर आ सकते हैं| उग्र आक्रमण यदि फुल निकलने या फलियाँ बनने के समय पर हो तो तने टूट जाते हैं एवं पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं| फसल की कटाई के उपरान्त ये फफूंद के पिण्ड भूमि में गिर जाते हैं या बचे हुए दूठों (अवशेषों) में प्रर्याप्त मात्रा में रहते हैं, जो खेत की तैयारी के समय भूमि में मिल जाते हैं| उपरोक्त रोगों का सामूहिक उपचार- सरसों की खेती को तना गलन रोग से बचाने के लिये 2 ग्राम बाविस्टिन प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें|

छिड़काव कार्यक्रम

सरसों की खेती में आल्टनेरिया ब्लाईट, सफेद रतुआ या ऊनी मिल्ड्यू के लक्षण दिखते ही डाइथेन एम- 45 का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव सरसों की खेती पर दो बार 15 दिन के अन्तर पर करें| जिन क्षेत्रों में तना गलन रोग का प्रकोप हर वर्ष अधिक होता है, वहां बाविस्टिन से 2 ग्राम प्रति किलो को दर से बीज का उपचार करे और इसी दवा का बिजाई के 45 से 50 और 65 से 70 दिन बाद 0.1 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें|
गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

हमारे देश में मिश्रित फसल उगाने की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराने समय में किसान भाई एक खेत में एक समय में एक से अधिक फसल उगाते थे। लेकिन इन फसलों का चयन बहुत सावधानीपूर्वक करना होता है क्योंकि यदि फसलों के चुनाव के बिना किसान भाइयों ने कोई ऐसी दो फसलें एक साथ खेत में उगाई जो होती तो एक समय में ही हैं लेकिन उनके लिए मौसम, सिंचाई, उर्वरक व खाद प्रबंधन आदि अलग-अलग होते हैं । इसके अलावा कभी कभी तो ऐसा होता है कि दो फसलों में एक फसल जल्दी तैयार होती है तो दूसरी देर से तैयार होती है। एक फसल के सर्दी का मौसम फायदेमंद होता है तो दूसरे के लिए नुकसानदायक होता है। एक निश्चित दूरी की पंक्ति व पौधों से पौधों की दूरी पर बोई जाती है तो दूसरी छिटकवां या बिना पंक्ति के ही बोई जाती हैं।

Mustard Farming

फसलों का चयन बहुत सावधानी से करें

वैसे कहा जाता है कि मिश्रित खेती के लिए ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिये कि दोनों फसलों के लिए उस क्षेत्र की भूमि,जलवायु व सिंचाई की आवश्यकता उपयुक्त हों यानी एक जैसी जरूरत होतीं हों। इसके बावजूद जानकार लोगों का मानना है कि अनाज व दलहनी फसलों को मिलाकर बोने से उत्पादन अच्छा होता है लेकिन अनाज व तिलहन की फसल की बुआई से बचना चाहिये।

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एक फसल को फायदा तो दूसरे को नुकसान

wheat cultivation

मौसम के प्रतिकूल प्रभाव से एक फसल को नुकसान होता है तो दूसरी फसल से कुछ अच्छी पैदावार हो जाती है। गेहूं व सरसों की मिलीजुली खेती से वर्षा की कमी से सरसों की फसल को नुकसान हो सकता है जबकि गेहूं की फसल को उतना नुकसान नही होगा वहीं सिंचाई की जल की कमी होने से सरसों की फसल अच्छी होगी जबकि गेहूं की फसल खराब हो सकती है।

क्यों सही नहीं होती एक साथ गेहूं व सरसों की खेती

गेहूं के साथ जौ, चना, मटर की फसल को अच्छा माना जाता है लेकिन गेहूं के साथ सरसों की फसल को अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि इन दोनों फसलों की प्राकृतिक जरूरतें अलग-अलग होतीं हैं। इन दोनों फसलों की खेती के लिए भूमि, खाद, सिंचाई आदि की व्यवस्था भी अलग-अलग की जाती हैं। इनका खाद व उर्वरक प्रबंधन भी अलग अलग होता है। दोनों ही फसलों की बुआई व कटाई का समय भी अलग-अलग होता है। इन दोनों फसलों को एक साथ करने से किसान भाइयों को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।

जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 के लिए सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। अगर हम राजस्थान की बात करें तो यह भारत का एकमात्र प्रदेश है, जो अकेला 42 फीसदी सरसों की पैदावार करता है। गेहूं समेत भारत के ज्यादातर राज्यों में तिलहन की खरीद भी चालू हो चुकी है। हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों में एमएसपी पर सरसों की खरीद की जा रही है। मौसम के गर्म होते-होते सरसों की खरीद में तीव्रता भी होती जा रही है। यही कारण है, कि भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नाफेड) द्वारा अब तक 169217.45 मिट्रिक टन सरसों की खरीद की जा चुकी है। साथ ही, इसके एवज में किसान भाइयों के खाते में करोड़ों रुपये की धनराशि भी भेजी जा चुकी है। इससे सरसों का उत्पादन करने वाले कृषक काफी खुश हैं। ऐसी स्थिति में किसानों को आशा है, कि आगामी दिनों में सरसों खरीदी में और ज्यादा तीव्रता आएगी।

नाफेड ने खुद की सरसों की खरीद शुरू

किसान तक की खबरों के अनुसार, तीन वर्ष बाद ऐसा हुआ है, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दर होने के कारण नाफेड स्वयं सरसों की खरीदी कर रहा है। इससे पूर्व किसान स्वयं मंडियों में जाकर व्यापारियों को एमएसपी से महंगी कीमत पर सरसों विक्रय करते थे। अब तक 84914 किसानों ने एमएसपी पर सरसों विक्रय करते है। इसके एवज उनके खाते में 922.24 रुपये भेजे जा चुके हैं। आहिस्ते-आहिस्ते सरसों खरीद केंद्रों पर किसानों की संख्या काफी बढ़ती जा रही है। हालाँकि, बेमौसम बारिश के कारण से राजस्थान एवं मध्य प्रदेश समेत बहुत से तिलहन उपादक राज्यों में फसल की कटाई में विलंब हो गया था। साथ ही, बरसात से सरसों की फसल को काफी क्षति भी पहुंची है। यह भी पढ़ें: न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के लिए 25 फरवरी तक करवा सकते हैं, रजिस्ट्रेशन मध्य प्रदेश के किसान

हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू हो चुकी है

भारत में राजस्थान सरसों का सर्वाधिक उत्पादन करता है। परंतु, इस बार हरियाणा सरसों की खरीद करने के संबंध में राजस्थान से आगे है। नाफेड ने अब तक हरियाणा के अंदर 139226.38 मिट्रिक टन सरसों की खरीद करली है। हालाँकि, हरियाणा राज्य में भी देश के कुल उत्पादन का अकेले 13.5 फीसद सरसों का उत्पादन किया जाता है। इसके बदले में कृषकों को 758.78 करोड़ रुपये दिए गए हैं। विशेष बात यह है, कि हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू की गई है।

इन राज्यों में इतने मीट्रिक टन सरसों की एमएसपी पर खरीद की जा चुकी है

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 हेतु सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दी है। यदि हम राजस्थान की बात करें तो यहां की जलवायु के अनुरूप यह भारत का एकमात्र राज्य है, जो अकेला 42 फसदी सरसों का उत्पादन करता है। इसके बावजूद भी राजस्थान में अब तक 4708.40 मिट्रिक टन ही सरसों की खरीद हो सकती है। साथ ही, सरसों उत्पादन में मध्य प्रदेश भी कोई पीछे नहीं है। यह 12 प्रतिशत सरसों का उत्पादन किया करता है। मध्य प्रदेश में अब तक 9977.74 मीट्रिक टन सरसों की खरीद संपन्न हुई है। इसके उपरांत गुजरात 4.2 फीसद सरसों का उत्पादन करता है।
भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में तिलहन फसलों में सर्वाधिक सरसों की कीमत प्रभावित हो रही है। विगत वर्ष के समापन में सरसों की कीमतों में काफी तीव्रता देखने को मिली थी। परंतु, अब सरसों की कीमतें एक दम नीचे गिरने लगी हैं। भारत भर की मंडियों में सरसों को क्या भाव मिल रहा है ? तिलहन फसलों का भाव निरंतर तीव्रता के पश्चात अब गिरावट की कवायद शुरू हो गई है। अधिकांश तिलहन फसलों की कीमतें अभी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

कुछ एक फसलों में कमी दर्ज की जा रही है। तिलहन फसलोंकी बात करें तो सर्वाधिक सरसों के भाव प्रभावित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में सरसों की कीमतों में शानदार तीव्रता देखने को मिली थी। एक वक्त तो भाव 9000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। परंतु, अब भाव में एक दम से कमी आई है। आलम यह है, कि सरसों का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया है, जिस कारण से कृषक भी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। 

भारत भर की मंडियों में सरसों की कीमत क्या है

केंद्र सरकार ने सरसों पर 5650 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। परंतु, भारत की अधिकतर मंडियों में किसानों को MSP तक की कीमत नहीं मिल रही है। सरसों की फसल को औसतन 5500 रुपये/क्विंटल की कीमत मिल रही है। केंद्रीय कृष‍ि व क‍िसान कल्याण मंत्रालय के एगमार्कनेट पोर्टल के मुताबिक, शनिवार (6 जनवरी) को भारत की एक दो मंडी को छोड़ दें, तो तकरीबन समस्त मंडियों में मूल्य MSP से नीचे ही रहा है। शनिवार को सरसों को सबसे शानदार भाव कर्नाटक की शिमोगा मंडी में हांसिल हुआ। जहां, सरसों 8800 रुपये/क्विंटल के भाव पर बिकी है।


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इसी प्रकार, गुजरात की अमरेली मंडी में भाव 6075 रुपये/क्विंटल तक रहा है। इन दो मंडियों को छोड़ दें, तो बाकी समस्त मंडियो में सरसों 5500 रुपये/क्विंटल के नीचे ही बेची जा रही है, जो MSP से काफी कम है। वहीं, भारत की कुछ मंडियों में तो भाव 4500 रुपये/क्विंटल तक पहुंच गया। विशेषज्ञों का कहना है, की कम मांग के चलते कीमतों में काफी गिरावट आई है। यदि मांग नहीं बढ़ी, तो कीमतें और कम हो सकती हैं, जो कि कृषकों के लिए काफी चिंता का विषय है।


यहां पर आप बाकी फसलों की सूची भी देख सकते हैं 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल का भाव उसकी गुणवत्ता पर भी निर्भर रहता है। ऐसी स्थिति में व्यापारी क्वालिटी के हिसाब से ही भाव निर्धारित करते हैं। फसल जितनी शानदार गुणवत्ता की होगी, उसकी उतनी ही अच्छी कीमत मिलेंगे। यदि आप भी अपने राज्य की मंडियों में भिन्न-भिन्न फसलों का भाव देखना चाहते हैं, तो आधिकारिक वेबसाइट https://agmarknet.gov.in/ पर जाकर पूरी सूची की जाँच कर सकते हैं।

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

दोस्तों आज हम बात करेंगे अरहर की दाल के विषय पर, अरहर की दाल को बहुत से लोग तुअर की दाल भी कहते हैं। अरहर की दाल बहुत खुशबूदार और जल्दी पच जाने वाली दाल कही जाती है। 

अरहर की दाल से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को भली प्रकार से जानने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे:

अरहर की दाल का परिचय:

आहार की दृष्टिकोण से देखे तो अरहर की दाल बहुत ही ज्यादा उपयोगी होती है। क्योंकि इसमें विभिन्न प्रकार के आवश्यक तत्व मौजूद होते हैं जैसे: खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि भरपूर मात्रा में मौजूद होता है। 

अरहर की दाल को रोगियों को खिलाना लाभदायक होता है। लेकिन जिन लोगों में गैस कब्ज और सांस जैसी समस्या हो उनको अरहर दाल का सेवन थोड़ा कम करना होगा। 

अरहर की दाल शाकाहारी भोजन करने वालो का मुख्य साधन माना जाता है शाकाहारी अरहर दाल का सेवन बहुत ही चाव से करते हैं।

अरहर दाल की फसल के लिए भूमि का चयन:

अरहर की फ़सल के लिए सबसे अच्छी भूमि हल्की दोमट मिट्टी और हल्की प्रचुर स्फुर वाली भूमि सबसे उपयोगी होती है। यह दोनों भूमि अरहर दाल की फसल के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। 

बीज रोपण करने से पहले खेत को अच्छी तरह से दो से तीन बार हल द्वारा जुताई करने के बाद, हैरो चलाकर खेतों की अच्छी तरह से जुताई कर लेना चाहिए। 

अरहर की फ़सल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना उचित होता है। तथा पाटा चलाकर खेतों को अच्छी तरह से समतल कर लेना चाहिए। अरहर की फसल के लिए काली भूमि जिसका पी.एच .मान करीब 7.0 - 8. 5 सबसे उत्तम माना जाता है।

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अरहर दाल की प्रमुख किस्में:

अरहर दाल की विभिन्न विभिन्न प्रकार की किस्में उगाई जाती है जो निम्न प्रकार है:

  • 2006 के करीब, पूसा 2001 किस्म का विकास हुआ था। या एक खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली किस्म है। इसकी बुवाई में करीब140 से लेकर 145 दिनों का समय लगता है। प्रति एकड़ जमीन में या 8 क्विंटल फ़सल की प्राप्ति होती है।
  • साल 2009 में पूसा 9 किस्म का विकास हुआ था। इस फसल की बुवाई खरीफ रबी दोनों मौसम में की जाती है। या फसल देर से पकती है 240 दिनों का लंबा समय लेती है। प्रति एकड़ के हिसाब से 8 से 10 क्विंटल फसल का उत्पादन होता है।
  • साल 2005 में पूसा 992 का विकास हुआ था। यह दिखने में भूरा मोटा गोल चमकने वाली दाल की किस्म है।140 से लेकर 145 दिनों तक पक जाती है प्रति एकड़ भूमि 6.6 क्विंटल फसल की प्राप्ति होती है। अरहर दाल की इस किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, पश्चिम तथा उत्तर प्रदेश दिल्ली तथा राजस्थान में होती है।
  • नरेंद्र अरहर 2, दाल की इस किस्म की बुवाई जुलाई मे की जाती हैं। पकने में 240 से 250 दिनों का टाइम लेती है। इस फसल की खेती प्रति एकड़ खेत में 12 से 13 कुंटल होती है। बिहार, उत्तर प्रदेश में इस फसल की खेती की जाती।
  • बहार प्रति एकड़ भूमि में10 से 12 क्विंटल फसलों का उत्पादन होता है। या किस्म पकने में लगभग 250 से 260 दिन का समय लेती है।
  • दाल की और भी किस्म है जैसे, शरद बी आर 265, नरेन्द्र अरहर 1और मालवीय अरहर 13,

आई सी पी एल 88039, आजाद आहार, अमर, पूसा 991 आदि दालों की खेती की प्रमुख है।

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अरहर दाल की फ़सल बुआई का समय:

अरहर दाल की फसल की बुवाई अलग-अलग तरह से की जाती है। जो प्रजातियां जल्दी पकती है उनकी बुवाई जून के पहले पखवाड़े में की जाती है विधि द्वारा। 

दाल की जो फसलें पकने में ज्यादा टाइम लगाती है। उनकी बुवाई जून के दूसरे पखवाड़े में करना आवश्यक होता है। दाल की फसल की बुवाई की प्रतिक्रिया सीडडिरल यह फिर हल के पीछे चोंगा को बांधकर पंक्तियों द्वारा की जाती है।

अरहर दाल की फसल के लिए बीज की मात्रा और बीजोपचार:

जल्दी पकने वाली जातियों की लगभग 20 से 25 किलोग्राम और धीमे पकने वाली जातियों की 15 से 20 किलोग्राम बीज /हेक्टर बोना चाहिए। 

जो फसल चैफली पद्धति से बोई जाती हैं उनमें बीजों की मात्रा 3 से 4 किलो प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। फसल बोने से पहले करीब फफूदनाशक दवा का इस्तेमाल 2 ग्राम थायरम, 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम यह फिर वीटावेक्स का इस्तेमाल करे, लगभग 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए। 

उपचारित किए हुए बीजों को रायजोबियम कल्चर मे करीब 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करने के बाद खेतों में लगाएं।

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अरहर की फसल की निंदाई-गुडाईः

अरहर की फसल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए पहली निंदाई लगभग 20 से 25 दिनों के अंदर दे, फूल आने के बाद दूसरी निंदाई शुरू कर दें। खेतों में दो से तीन बार कोल्पा चलाने से अच्छी तरह से निंदाई की प्रक्रिया होती है।

तथा भूमि में अच्छी तरह से वायु संचार बना रहता है। फसल बोने के नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर का इस्तेमाल करे। नींदानाषक का इस्तेमाल करने के बाद नींदाई करीब 30 से 40 दिन के बाद करना आवश्यक होता है।

अरहर दाल की फसल की सिंचाईः

किसानों के अनुसार यदि सिंचाई की व्यवस्था पहले से ही उपलब्ध है, तो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए। 

तथा दूसरे सिंचाई की प्रक्रिया खेतों में फलिया की अवस्था बन जाने के बाद करनी चाहिए। इन सिंचाई द्वारा खेतों में फसल का उत्पादन बहुत अच्छा होता है।

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अरहर की फसल की सुरक्षा के तरीके:

कीटो से फसलों की सुरक्षा करने के लिए क्यूनाल फास या इन्डोसल्फान 35 ई0सी0, 20 एम0एल का इस्तेमाल करें। फ़सल की सुरक्षा के लिए आप क्यूनालफास, मोनोक्रोटोफास आदि को पानी में घोलकर खेतों में छिड़काव कर सकते हैं।

इन प्रतिक्रियाओं को अपनाने से खेत कीटो से पूरी तरह से सुरक्षित रहते हैं। दोस्तों हम उम्मीद करते हैं, कि आपको हमारा या आर्टिकल अरहर पसंद आया होगा। 

हमारे इस आर्टिकल में अरहर से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक जानकारियां मौजूद हैं। जो आपके बहुत काम आ सकती है। 

यदि आप हमारी दी गई जानकारियों से संतुष्ट है तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों के साथ और सोशल मीडिया पर शेयर करें। धन्यवाद।

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पोषक अनाज को भोजन में फिर सम्मान मिले - तोमर भारत की अगुवाई में मनेगा IYoM-2023 पाक महोत्सव में मध्य प्रदेश ने मारी बाजी वो कहते हैं न कि, जब तक योग विदेश जाकर योगा की पहचान न हासिल कर ले, भारत इंडिया के तौर पर न पुकारा जाने लगे, तब तक देश में बेशकीमती चीजों की कद्र नहीं होती। कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी है देसी अनाज बाजरा की।

IYoM 2023

गरीब का भोजन बताकर भारतीयों द्वारा लगभग त्याज्य दिये गए इस पोषक अनाज की महत्ता विश्व स्तर पर साबित होने के बाद अब इस अनाज
बाजरा (Pearl Millet) के सम्मान में वर्ष 2023 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (आईवायओएम/IYoM) के रूप में राष्ट्रों ने समर्पित किया है।
इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (IYoM) 2023 योजना का सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें
मिलेट्स (MILLETS) मतलब बाजरा के मामले में भारत की स्थिति, लौट के बुद्धू घर को आए वाली कही जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष घोषित किया है। पीआईबी (PIB) की जानकारी के अनुसार केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जुलाई मासांत में आयोजित किया गया पाक महोत्सव भारत की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष (IYoM)- 2023 लक्ष्य की दिशा में सकारात्मक कदम है। पोषक-अनाज पाक महोत्सव में कुकरी शो के जरिए मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा, अथवा मोटे अनाज पर आधारित एवं मिश्रित व्यंजनों की विविधता एवं उनकी खासियत से लोग परिचित हुए। आपको बता दें, मिलेट (MILLET) शब्द का ज्वार, बाजरा आदि मोटे अनाज संबंधी कुछ संदर्भों में भी उपयोग किया जाता है। ऐसे में मिलेट के तहत बाजरा, जुवार, कोदू, कुटकी जैसी फसलें भी शामिल हो जाती हैं। पीआईबी द्वारा जारी की गई सूचना के अनुसार महोत्सव में शामिल केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मिलेट्स (MILLETS) की उपयोगिता पर प्रकाश डाला।

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अपने संबोधन में मंत्री तोमर ने कहा है कि, “पोषक-अनाज को हमारे भोजन की थाली में फिर से सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिए।” उन्होंने जानकारी में बताया कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष घोषित किया है। यह आयोजन भारत की अगु़वाई में होगा। इस गौरवशाली जिम्मेदारी के तहत पोषक अनाज को बढ़ावा देने के लिए पीएम ने मंत्रियों के समूह को जिम्मा सौंपा है। केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर ने दिल्ली हाट में पोषक-अनाज पाक महोत्सव में (IYoM)- 2023 की भूमिका एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि, अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष (IYoM)- 2023 के तहत केंद्र सरकार द्वारा स्थानीय, राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यक्रमों के आयोजन की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई है।

बाजरा (मिलेट्स/MILLETS) की वज्र शक्ति का राज

ऐसा क्या खास है मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा या मोटे अनाज में कि, इसके सम्मान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरा एक साल समर्पित कर दिया गया। तो इसका जवाब है मिलेट्स की वज्र शक्ति। यह वह शक्ति है जो इस अनाज के जमीन पर फलने फूलने से लेकर मानव एवं प्राकृतिक स्वास्थ्य की रक्षा शक्ति तक में निहित है। जी हां, कम से कम पानी की खपत, कम कार्बन फुटप्रिंट वाली बाजरा (मिलेट्स/MILLETS) की उपज सूखे की स्थिति में भी संभव है। मूल तौर पर यह जलवायु अनुकूल फसलें हैं।

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शाकाहार की ओर उन्मुख पीढ़ी के बीच शाकाहारी खाद्य पदार्थों की मांग में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हो रही है। ऐसे में मिलेट पॉवरफुल सुपर फूड की हैसियत अख्तियार करता जा रहा है। खास बात यह है कि, मिलेट्स (MILLETS) संतुलित आहार के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा में भी असीम योगदान देता है। मिलेट (MILLET) या फिर बाजरा या मोटा अनाज बी-कॉम्प्लेक्स विटामिन और खनिजों जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों का भंडार है।

त्याज्य नहीं महत्वपूर्ण हैं मिलेट्स - तोमर

आईसीएआर-आईआईएमआर, आईएचएम (पूसा) और आईएफसीए के सहयोग से आयोजित मिलेट पाक महोत्सव के मुख्य अतिथि केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर थे। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि, “मिलेट गरीबों का भोजन है, यह कहकर इसे त्याज्य नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे भारत द्वारा पूरे विश्व में विस्तृत किए गए योग और आयुर्वेद के महत्व की तरह प्रचारित एवं प्रसारित किया जाना चाहिए।” “भारत मिलेट की फसलों और उनके उत्पादों का अग्रणी उत्पादक और उपभोक्ता राष्ट्र है। मिलेट के सेवन और इससे होने वाले स्वास्थ्य लाभों के बारे में जागरूकता प्रसार के लिए मैं इस प्रकार के अन्य अनेक आयोजनों की अपेक्षा करता हूं।”

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मिलेट और खाद्य सुरक्षा जागरूकता

मिलेट और खाद्य सुरक्षा संबंधी जागरूकता के लिए होटल प्रबंधन केटरिंग तथा पोषाहार संस्थान, पूसा के विद्यार्थियों ने नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत किया। मुख्य अतिथि तोमर ने मिलेट्स आधारित विभिन्न व्यंजनों का स्टालों पर निरीक्षण कर टीम से चर्चा की। महोत्सव में बतौर प्रतिभागी शामिल टीमों को कार्यक्रम में पुरस्कार प्रदान कर प्रोत्साहित किया गया।

मध्य प्रदेश ने मारी बाजी

मिलेट से बने सर्वश्रेष्ठ पाक व्यंजन की प्रतियोगिता में 26 टीमों में से पांच टीमों को श्रेष्ठ प्रदर्शन के आधार पर चुना गया था। इनमें से आईएचएम इंदौर, चितकारा विश्वविद्यालय और आईसीआई नोएडा ने प्रथम तीन क्रम पर स्थान बनाया जबकि आईएचएम भोपाल और आईएचएम मुंबई की टीम ने भी अंतिम दौर में सहभागिता की।

इनकी रही उपस्थिति

कार्यक्रम में केंद्रीय राज्यमंत्री कैलाश चौधरी, कृषि सचिव मनोज आहूजा, अतिरिक्त सचिव लिखी, ICAR के महानिदेशक डॉ. त्रिलोचन महापात्र और IIMR, हैदराबाद की निदेशक रत्नावती सहित अन्य अधिकारी एवं सदस्य उपस्थित रहे। इस दौरान उपस्थित गणमान्य नागरिकों की सुपर फूड से जुड़ी जिज्ञासाओं का भी समाधान किया गया। महोत्सव के माध्यम से मिलेट से बनने वाले भोजन के स्वास्थ्य एवं औषधीय महत्व संबंधी गुणों के बारे में लोगों को जागरूक कर इनके उपयोग के लिए प्रेरित किया गया। दिल्ली हाट में इस महोत्सव के दौरान पोषण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की गईं। इस विशिष्ट कार्यक्रम में अनेक स्टार्टअप ने भी अपनी प्रस्तुतियां दीं। 'छोटे पैमाने के उद्योगों व उद्यमियों के लिए व्यावसायिक संभावनाएं' विषय पर आधारित चर्चा से भी मिलेट संबंधी जानकारी का प्रसार हुआ। अंतर राष्ट्रीय बाजरा वर्ष (IYoM)- 2023 के तहत नुक्कड़ नाटक तथा प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिताओं जैसे कार्यक्रमों के तहत कृषि मंत्रालय ने मिलेट के गुणों का प्रसार करने की व्यापक रूपरेखा बनाई है। वसुधैव कुटुंबकम जैसे ध्येय वाक्य के धनी भारत में विदेशी अंधानुकरण के कारण शिक्षा, संस्कृति, कृषि कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष (IYoM)- 2023 जैसी पहल भारत की पारंपरिक किसानी के मूल से जुड़ने की अच्छी कोशिश कही जा सकती है।
बाजरा के प्रमुख उत्पादक राजस्थान के लिए FICCI और कोर्टेवा एग्रीसाइंस ने मिलेट रोडमैप कार्यक्रम का आयोजन किया

बाजरा के प्रमुख उत्पादक राजस्थान के लिए FICCI और कोर्टेवा एग्रीसाइंस ने मिलेट रोडमैप कार्यक्रम का आयोजन किया

हाल ही में राजस्थान के जयपुर में FICCI और कॉर्टेवा एग्रीसाइंस द्वारा राजस्थान सरकार के लिए मिलेट रोडमैप कार्यक्रम आयोजित किया। जिसका प्रमुख उद्देश्य बाजरा की पैदावार में राजस्थान की शक्ति का भारतभर में प्रदर्शन करना है। फिक्की द्वारा कोर्टेवा एग्रीसाइंस के साथ साझेदारी में 19 मई 2023, शुक्रवार के दिन जयपुर में मिलेट कॉन्क्लेव - 'लीवरेजिंग राजस्थान मिलेट हेरिटेज' का आयोजन हुआ। दरअसल, इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य बाजरा की पैदावार में राजस्थान की शक्ति को प्रदर्शित करना है। विभिन्न हितधारकों के मध्य एक सार्थक संवाद को प्रोत्साहन देना है। जिससे कि राजस्थान को बाजरा हेतु एक प्रमुख केंद्र के तौर पर स्थापित करने के लिए एक भविष्य का रोडमैप तैयार किया जा सके। इसी संबंध में टास्क फोर्स के अध्यक्ष के तौर पर कॉर्टेवा एग्रीसाइंस बाजरा क्षेत्र की उन्नति व प्रगति में तेजी लाने हेतु राजस्थान सरकार द्वारा बाजरा रोडमैप कवायद का नेतृत्व किया जाएगा।

इन संस्थानों एवं समूहों ने कार्यक्रम में हिस्सा लिया

कॉन्क्लेव में कृषि व्यवसाय आतिथ्य एवं पर्यटन, नीति निर्माताओं, प्रसिद्ध शोध संस्थानों के प्रगतिशील किसानों, प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। पैनलिस्टों ने बाजरा मूल्य श्रृंखला में महत्वपूर्ण समस्याओं का निराकरण करने एवं एक प्रभावशाली हिस्सेदारी को उत्प्रेरित करने के लिए एक समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने पर विचार-विमर्श किया। चर्चा में उन फायदों और संभावनाओं की व्यापक समझ उत्पन्न करने पर भी चर्चा की गई। जो कि बाजरा टिकाऊ पर्यटन और स्थानीय समुदायों की आजीविका दोनों को प्रदान कर सकता है। ये भी देखें: IYoM: भारत की पहल पर सुपर फूड बनकर खेत-बाजार-थाली में लौटा बाजरा-ज्वार

श्रेया गुहा ने मिलेट्स के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किए

श्रेया गुहा, प्रधान सचिव, राजस्थान सरकार का कहना है, कि राजस्थान को प्रत्येक क्षेत्र में बाजरे की अपनी विविध रेंज के साथ, एक पाक गंतव्य के तौर पर प्रचारित किया जाना चाहिए। पर्यटन उद्योग में बाजरा का फायदा उठाने का बेहतरीन अवसर है। इस दौरान आगे उन्होंने कहा, "स्टार्टअप और उद्यमियों के लिए बाजरा का उपयोग करके विशेष रूप से बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को लक्षित करके नवीन व्यंजनों और उत्पादों को विकसित करने की अपार संभावनाएं हैं। बाजरा दीर्घकाल से राजस्थान के पारंपरिक आहार का एक अभिन्न भाग रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं राजस्थान 'बाजरा' का प्रमुख उत्पादक राज्य है। बाजरा को पानी और जमीन सहित कम संसाधनों की जरूरत पड़ती है। जिससे वह भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद उत्पाद बन जाता है। जितेंद्र जोशी, चेयरमैन, फिक्की टास्क फोर्स ऑन मिलेट्स एंड डायरेक्टर सीड्स, कोर्टेवा एग्रीसाइंस - साउथ एशिया द्वारा इस आयोजन पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है, कि "राजस्थान, भारत के बाजरा उत्पादन में सबसे बड़ा योगदानकर्ता के रूप में, अंतरराष्ट्रीय वर्ष में बाजरा की पहल की सफलता की चाबी रखता है। आज के मिलेट कॉन्क्लेव ने राजस्थान की बाजरा मूल्य श्रृंखला को आगे बढ़ाने के रोडमैप पर बातचीत करने के लिए विभिन्न हितधारकों के लिए एक मंच के तौर पर कार्य किया है। यह व्यापक दृष्टिकोण राज्य के बाजरा उद्योग हेतु न सिर्फ स्थानीय बल्कि भारतभर में बड़े अच्छे अवसर उत्पन्न करेगा। इसके लिए बाजरा सबसे अच्छा माना गया है।

वर्षा पर निर्भर इलाकों के लिए कैसी जलवायु होनी चाहिए

दरअसल, लचीली फसल, किसानों की आमदनी में बढ़ोत्तरी और संपूर्ण भारत के लिए पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराते हुए टिकाऊ कृषि का समर्थन करना। इसके अतिरिक्त बाजरा कृषि व्यवसायों हेतु नवीन आर्थिक संभावनाओं के दरवाजे खोलता है। कोर्टेवा इस वजह हेतु गहराई से प्रतिबद्ध है और हमारे व्यापक शोध के जरिए से राजस्थान में जमीनी कोशिशों के साथ, हम किसानों के लिए मूल्य जोड़ना सुचारू रखते हैं। उनकी सफलता के लिए अपने समर्पण पर अड़िग रहेंगे। ये भी देखें: भारत सरकार ने मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किये तीन नए उत्कृष्टता केंद्र बाजरा मूल्य श्रृंखला में कॉर्टेवा की कोशिशों में संकर बाजरा बीजों की पेशकश शम्मिलित है, जो उनके वर्तमानित तनाव प्रतिरोध को बढ़ाते हैं। साथ ही, 15-20% अधिक पैदावार प्रदान करते हैं। साथ ही, रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रदान करते हैं एवं अंततः किसान उत्पादकता और लाभप्रदता बढ़ाते हैं। जयपुर में कोर्टेवा का इंडिया रिसर्च सेंटर बरसाती बाजरा, ग्रीष्म बाजरा और सरसों के प्रजनन कार्यक्रम आयोजित करता है। "प्रवक्ता" जैसे भागीदार कार्यक्रम के साथ कोर्टेवा का उद्देश्य किसानों को सभी फसल प्रबंधन रणनीतियों, नए संकरों में प्रशिक्षित और शिक्षित करने के लिए प्रेरित करना है। उनको एक सुनहरे भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले बाकी किसान भाइयों को प्रशिक्षित करने में सहयोग करने हेतु राजदूत के रूप में शक्तिशाली बनाना है। इसके अतिरिक्त राज्य भर में आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय बाजरा महोत्सव का उद्देश्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं को बाजरा के पारिस्थितिक फायदे एवं पोषण मूल्य पर बल देना है। कंपनी बाजरा किसानों को प्रौद्योगिकी-संचालित निराकरणों के इस्तेमाल के विषय में शिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना बरकरार रखे हुए हैं, जो उन्हें पैदावार, उत्पादकता और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ाने में सशक्त बनाता है।

कॉर्टेवा एग्रीसाइंस कृषि क्षेत्र में क्या भूमिका अदा करती है

कॉर्टेवा एग्रीसाइंस (NYSE: CTVA) एक सार्वजनिक तौर पर व्यवसाय करने वाली, वैश्विक प्योर-प्ले कृषि कंपनी है, जो विश्व की सर्वाधिक कृषि चुनौतियों के लिए फायदेमंद तौर पर समाधान प्रदान करने हेतु उद्योग-अग्रणी नवाचार, उच्च-स्पर्श ग्राहक जुड़ाव एवं परिचालन निष्पादन को जोड़ती है। Corteva अपने संतुलित और विश्व स्तर पर बीज, फसल संरक्षण, डिजिटल उत्पादों और सेवाओं के विविध मिश्रण समेत अपनी अद्वितीय वितरण रणनीति के जरिए से लाभप्रद बाजार वरीयता पैदा करता है। कृषि जगत में कुछ सर्वाधिक मान्यता प्राप्त ब्रांडों एवं विकास को गति देने के लिए बेहतर ढ़ंग से स्थापित एक प्रौद्योगिकी पाइपलाइन सहित कंपनी पूरे खाद्य प्रणाली में हितधारकों के साथ कार्य करते हुए किसानों के लिए उत्पादकता को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए प्रतिबद्ध है। क्योंकि, यह उत्पादन करने वालों के जीवन को बेहतर करने के अपने वादे को पूर्ण करती है। साथ ही, जो उपभोग करते हैं, आने वाली पीढ़ियों के लिए उन्नति एवं विकास सुनिश्चित करते हैं। इससे संबंधित ज्यादा जानकारी के लिए आप www.corteva.com पर भी विजिट कर सकते हैं।
किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन, लाखों की हो रही आमदनी

किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन, लाखों की हो रही आमदनी

नई दिल्ली। जहां किसान जहरीले बिच्छू को छूने से भी डरते हैं, वहीं एक किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को ही अपनी कमाई का साधन बना लिया है और आज उन बिच्छूओं से ही लाखों की कमाई कर रहे हैं।

बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन

तुर्की के दक्षिणपूर्व स्थित सैनलियुर्फा (Sanliurfa) में पेशेवर किसान मेटिन ओरेनलर ने अपना एक फार्म खोल रखा है। इस फार्म में वह सैकड़ों डंक मारने वाले बिच्छूओं का पालन करते हैं, बाकायदा बिच्छूओं को सुबह-शाम खिलाया-पिलाया जाता है। इसके अलावा विशेषज्ञों की निगरानी में उनकी देखरेख भी होती है। जब बिच्छूओं में अच्छी मात्रा में जहर इकट्ठा हो जाता है तो फार्म के कर्मचारी उनका जहर निकाल लेते हैं, जो बाजार में काफी महंगा बिकता है। अब इसी डंक मारने वाले बिच्छूओं के कारोबार से किसान मेटिन ओरेनलर लाखों की कमाई कर रहे हैं।

बिच्छूओं के जहर से बनता है पाउडर

फार्म स्वामी मेटिन ओरेनलर के अनुसार डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं से निकलने वाले जहर को एक विशेष प्रकार से बनाए गए प्लास्टिक के डिब्बों में रखा जाता है, और डिब्बों को फार्म की प्रयोगशाला में फ्रीज करके रख दिया जाता है। बाद में उस जहर का पाउडर बनाकर बाजार में बेच दिया जाता है।

एक बिच्छू में निकलता है कितना जहर ?

ओरेनलर ने अपने फार्म में 20 हजार से ज्यादा एंड्रोक्ट्स तुर्कियंसिस (Androctonus turkiyensis) बिच्छू पाल रखे हैं। [caption id="attachment_10746" align="alignnone" width="357"]Androctonus turkiyensis scorpio एंड्रोक्ट्स तुर्कियंसिस (Androctonus turkiyensis scorpio)[/caption]   सभी बिच्छूओं को उनकी जरूरत के हिसाब से खाना दिया जाता है, इसके बाद उनका जहर निकाला जाता है। बताया जाता है कि एक बिच्छू से करीब 2 मिलीग्राम जहर निकलता है। इस तरह वह एक बार में करीब 2 ग्राम जहर निकाल लेते हैं।

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इंसानों की जान लेने में सक्षम होता है बिच्छू का जहर

बिच्छू का जहर इंसानों की जान लेने में सक्षम होता है, बिच्छू ठंडी व गर्म दोनों तरह की जगहों पर पाया जाता है। वैज्ञानिक अभी तक बिच्छू की 2000 प्रजातियों का पता लगा चुके हैं, जिनमें 40 प्रजातियां ऐसी हैं जो इंसान की जान ले सकती हैं।

बिच्छू के जहर की कीमत क्या है?

फार्म में बिच्छूओं के जहर का पाउडर बनाकर इसे यूरोप सप्लाई किया जाता है, जिससे अच्छी कमाई होती है। इन दिनों 1 लीटर बिच्छू के जहर की कीमत करीब 10 मिलियन डॉलर है। भारतीय मुद्रा के अनुसार ये राशि करीब 79 करोड़ है, हालांकि ओरेनलर अपनी कमाई के बारे में सही जानकारी नहीं देते हैं, लेकिन वह महीने भर में लाखों रुपए कमा लेते हैं।
ड्रिप सिंचाई यानी टपक सिंचाई की संपूर्ण जानकारी

ड्रिप सिंचाई यानी टपक सिंचाई की संपूर्ण जानकारी

किसान भाइयों आपको यह जानकर अवश्य आश्चर्य होगा कि हमारे देश में पानी का सिंचाई 85 प्रतिशत हिस्सा खेती में इस्तेमाल किया जाता है। इसके बावजूद हमारी खेती 65 प्रतिशत भगवान भरोसे रहती है यानी बरसात पर निर्भर करती है। 

कहने का मतलब केवल 35 प्रतिशत खेती को सिंचाई के लिए पानी मिल पाता है। अब तेजी से बढ़ रहे औद्योगीकरण व शहरी करण से खेती के लिए पानी की किल्लत रोज-ब-रोज बढ़ने वाली है। इसलिये सरकार ने जल संरक्षण योजना चला रखी है। 

हमें पानी की ओर से सतर्क हो जाना चाहिये। इसके अलावा जिन किसान भाइयों को नकदी एवं व्यावसायिक फसलें लेनी होतीं हैं उन्हें पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है। 

परम्परागत सिंचाई के साधनों नहरों, नलकूपों, कुएं से सिंचाई करने से 30 से 35 प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है। वैज्ञानिकों ने फल, सब्जियों व मसाला वाली उपजों की सिंचाई के लिए ड्रिप का विकल्प खोजा है, इसके अनेक लाभ हैं। आइये ड्रिप इरिगेशन के बारे में विस्तार से जानते हैं।

ड्रिप सिंचाई क्या है? drip irrigation meaning in hindi?

ड्रिप सिंचाई एक ऐसा सिस्टम है जिससे खेतों में पौधों को करीब से उनकी जड़ों तक बूंद-बूंद करके पानी पहुंचाने का काम करता है। इसकी सबसे खास बात यह है कि कम पानी में अधिक से अधिक फसल को सिंचित करना है। 

ड्रिप इरिगेशन में कुएं से पानी निकालने वाले मोटर पम्प से  हेडर असेम्बली के माध्यम से मेनलाइनव सबमेन को पॉली ट्यूब से जोड़कर खेतों को आवश्यकतानुसार पानी पहुंचाया जाता है, जिसमें पौधों की दूरी के हिसाब से पानी को टपकाने के छिद्र बने होते हैं। उनसे पौधों की सिंचाई की जाती है। 

इसके अलावा खेत में खाद डालने के लिए भी इस सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है। हेडर असेम्बली में बने टैंक में पानी में खाद डाल दी जाती है। 

जो पाइपों के सहारे पौधों की जड़ों तक पहुंच जाती है। इससे खेती बहुत अच्छी होती है और किसान भाइयों को इससे अनेक लाभ मिलते हैं।  

ड्रिप सिंचाई के सिस्टम में कौन-कौन से उपकरण होते हैं? 

किसान भाइयों यह ऐसा सिस्टम है कि खेत में फसल के समय पौधों के किनारे-किनारे इसके पाइपों को फैला दिया जाता है और उससे पानी दिया जाता है। 

फसल खत्म होने या गर्मी अधिक होने पर इस सिस्टम को समेट कर छाया में साफ सफाई करके सुरक्षित रख दिया जाता है। आइये जानते हैं कि ड्रिप सिंचाई का चित्र कसे होता है और इसमें कौन-कौन से उपकरण होते हैं।

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ड्रिप सिंचाई का चित्र  


हेडर असेम्बली : हेडर असेम्बली से पानी की गति को नियंत्रित किया जाता है। इसमें बाईपास, नॉन रिटर्न वाल्व, एयर रिलीज शामिल होते हैं।

फिल्टर्स : जैसा नाम से ही पता चलता है कि यह पानी को फिल्टर करता है। इन फिल्टर्स में स्क्रीन फिल्टर, सैंड फिल्टर, सैंड सेपरेटर, सेटलिंग टैंक आदि छोटे-छोटे उपकरण होते हैं। 

पानी में रेत अथवा मिट्टी का फिल्टर करने के लिए हाइड्रोसाइक्लोन फिल्टर का उपयोग किया जाता है। पानी में काई, पौधों के सड़े हुए पत्ते, लकड़ी व महीन कचरे की सफाई के लिए सैंड फिल्टर का प्रयोग किया जाना चाहिये। 

यदि पानी साफ दिख रहा हो तब भी उसके तत्वों के शुद्धिकरण के लिए स्क्रीन फिल्टर का इस्तेमाल किया जाना चाहिये।

खाद व रसायन देने के उपकरण: ड्रिप इरिगेशन द्वारा उर्वरकों व खादों को इस सिस्टम में लगे वेंचूरी और फर्टिलाइजर टैंक से पौधों तक पहुंचाया जाता है। वेंचूरी दाब के अंतर पर चलने वाला उपकरण है। 

खाद व रसायन इसके द्वारा उचित ढंग से दिये जा सकते हैं। इस सिस्टम से खाद व रसायन को घोल कर पानी में इसकी स्पीड के अनुसार डाले जाते हैं। 

इस सिस्टम से एक घंटे में 60 से 70 लीटर की गति से खाद व रसायन दिये जा सकते हैं। फर्टिलाइजर टैंक में घुली हुई खाद को भर कर प्रेशर कंट्रोल करके सिस्टम में डाल दी जाती है, जो पाइपों के माध्यम से पौधों तक पहुंचती है।

मेन लाइन: मेन लाइन पम्प से सबमेन यानी खेत में लगे पाइपों तक पानी पहुंचाने का काम करती है।

सब मेन: सबमेन ही पौधों तक पहुंचाने का एक उपकरण है। मेनलाइन से पानी लेकर सबमेन लिटरल या पॉलीट्यूब तक पानी पहुंचाती है। ये पीवीसी या एचडीपीपीई पाइप की होती है। 

सबमेन को जमीन के अंदर कम से कम डेढ़ से दो फीट की गहराई पर रखते हैं। इसमें पानी की स्पीड और प्रेशर कंट्रोल करने के लिए शुरू में वॉल्व और आखिरी में फ्लश वॉल्व लगाया जाता है।

वाल्व: पानी की स्पीड यानी गति और प्रेशर यानी दबाव को कंट्रोल करने के लिए सबमेन के आगे वॉल्व लगाये जाते हैं। सबमेन के शुरू में एयर रिलीज और वैक्यूम रिलीज लगाये जाने जरूरी होते हैं। इनके न लगाने से पम्प बंद करने के बाद हवा से मिट्टी धूल आदि अंदर भर जाने से ड्रिपर्स के छिद्र बंद हो सकते हैं।

लेटरल अथवा पॉली ट्यूब

सबमेन का पानी पॉलीट्यूब द्वारा पूरे खेत में पहुंचाया जाता है। प्रत्येक पौधे के पास आवश्यकतानुसार पॉलीट्यूब के ऊपर ड्रिपर लगाया जाता है। लेटरल्स एलएलडीपीई से बनाये जाते हैं।

एमीटर्स या ड्रिपर: ड्रिप इरिगेशन का यह प्रमुख उपकरण है। ड्रिपर्स का ऑनलाइन या इनलाइन की प्रति घंटे की स्पीड और संख्या की अधिकतम जरूरत के अनुसार निश्चित किया जाता है। 

ऊबड़-खाबड़ वाली जमीन पर कॉम्पनसेटिंग ड्रिपर्स लगाये जाते हैं। मिनी स्प्रिंकलर या जेट्स ऐसा उपकरण है जिसे एक्सटेंशन ट्यूब की सहायता से पॉलीट्यूब पर लगाया जा सकता है।

ड्रिप इरिगेशन से मिलने वाले लाभ


पहला लाभ यह होता है कि इस सिंचाई से बंजर, ऊसर, ऊबड़-खाबड़ वाली जमीन, क्षारयुक्त, शुष्क खेती वाली, पानी के कम रिसाव वाली और अल्प वर्षा की खारी एवं समुद्र तटीय जमीन पर भी फसल उगाई जा सकती है।

ड्रिप सिंचाई से पेड़-पौधों को रोजाना पर्याप्त पानी मिलता है। फसलों की बढ़ोत्तरी और पैदावार दोनों में काफी बढ़ोत्तरी होती है।

ड्रिप सिंचाई से फल, सब्जी और अन्य फसलों की पैदावार में 20 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।

इस तरह की सिंचाई में एक भी बूंद बरबाद न होने से 30 से 60 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। इससे किसान भाइयों का पैसा बचता है और भूजल संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।

फर्टिगेशन में ड्रिप सिंचाई अत्यधिक कारगर है। इस सिंचाई से उर्वरकों व रासायनिकों के पोषक तत्व सीधे पौधों के पास तक पहुंचते हैं। 

इससे खाद व रासायनिक की 40 से 50 प्रतिशत तक बचत होती है। महंगी खादों में यह बचत किसान भाइयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

खरपतवार नियंत्रण में भी यह सिंचाई प्रणाली फायदेमंद रहती है। पौधों की जड़ों में सीधे पानी पहुंचने के कारण आसपास की जमीन सूखी रहती है जिससे खरपतवार के उगने की संभावना नही रहती है।

ड्रिप इरिगेशन प्रणाली से सिंचाई किये जाने से पौधे काफी मजबूत होते है। इनमें कीट व रोग आसानी से नहीं लगते हैं। इससे किसान भाइयों को कीटनाशक का खर्चा कम हो जाता है।

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किस तरह की खेती में अधिक लाभकारी है ड्रिप सिंचाई

ड्रिप इरिगेशन सब्जियों व फल तथा मसाले की खेती के लिए अधिक लाभकारी होती है। इस तरह की सिंचाई उन फसलों में की जाती है जो पौधे दूर-दूर लाइन में लगाये जाते हैं।गेहूं की फसल में यह सिंचाई कारगर नहीं है

कैसे किया जाता है ड्रिप सिंचाई सिस्टम का मेंटेनेंस

ड्रिप इरिगेशन सिस्टम का रखरखाव यानी मेंटेनेंस बहुत आवश्यक है। इससे यह सिस्टम 10 साल तक चलाया जा सकता है।

रोजाना पम्प को चालू करने के बाद प्रेशर के ठीक होने के पर सैंडफिल्टर, हायड्रोसाइक्लोन को चेक करते रहना चाहिये। समय-समय पर इन फिल्टर्स की साफ सफाई करते रहना चाहिये।

खेतों में पाइप लाइन की जांच पड़ताल करनी चाहिये। मुड़े पाइपों को सीधा करें। टूटे-फूटे पाइपों की मरम्मत करें या बदलें।

पाइपों में जाने वाले पानी का प्रेशर देखें, उसे नियंत्रित करें ताकि पूरे खेत में पानी पहुंच सके। ड्रिपर्स से गिरने वाले पानी को देखें कि पानी आ रहा है या नहीं।

लेटरल यानी इनलाइन के अंतिम छोर पर लगे फ्लश वॉल्व को खोलकर थोड़ी देर तक पानी को गिरायें।

खेत में पानी की सिंचाई हो जाने के बाद लेटरल या पॉली ट्यूब को समेट कर छाया में रख दें।

समय-समय पर हेडर असेम्बली की चेकिंग करके छोटी-मोटी कमियों को दूर करते रहना चाहिये। इससे सिस्टम की मरम्मत में बहुत कम खर्चा आयेगा।

सब्सिडी मिलती है

ड्रिप इरिगेशन सिस्टम थोड़ा महंगा है। छोटे किसानों की क्षमता से बाहर की बात है। देश में आज भी 75 प्रतिशत छोटे किसान हैं। इन्ही छोटे किसानों को अपनी आमदनी बढ़ाने की जरूरत है।

भारत सरकार द्वारा छोटे किसानों की मदद के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना चलाई गयी है। इसके तहत छोटे किसानों को ड्रिप सिंचाई सिस्टम को खरीदने के लिए सब्सिडी दी जाती है। 

जानकार लोगों का कहना है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिला किसानों को 60 से 65 प्रतिशत तक की सब्सिडी दी जाती है जबकि सामान्य किसानों 50 प्रतिशत सब्सिडी दी जाती है।  

केन्द्र सरकार की यह योजना पूरे देश में लागू है लेकिन प्रत्येक राज्य अपने-अपने नियम कानून के अनुसार इसे लागू  करते हैं। 

इसलिये किसान भाई अपने-अपने राज्य के संबंधित विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क कर पूरी जानकारी लेकर लाभ उठायें।

ड्रिप सिंचाई सिस्टम की लागत

अनुभवी किसानों या खरीदने वाले किसानों से मिली जानकारी के अनुसार यह सिस्टम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 1.25 से लेकर 1.50 लाख रुपये तक में आता है। 

इसमें पाइप की आईएसआई मार्का व क्वालिटी के कारण अंतर आता है। इसमें 50 प्रतिशत तक अनुदान मिल सकता है।

मूंगफली की बुवाई

मूंगफली की बुवाई

दोस्तों आज हम बात करेंगे मूंगफली की बुवाई की, मूंगफली की बुवाई कहां और किस प्रकार होती है। मूंगफली से जुड़ी सभी आवश्यक और महत्वपूर्ण बातों को जानने के लिए कृपया हमारे पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहें: 

मूंगफली की बुवाई कहां होती है?

मूंगफली एक तिलहनी फसल है भारत में सभी फसलों की तरह मूंगफली भी महत्वपूर्ण फसलों में से एक है। मूंगफली की अधिक पैदावार गुजरात आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक राज्यों में भारी मात्रा में उगाई जाती है।

कुछ और भी ऐसे राज्य हैं जहां मूंगफली की पैदावार काफी ज्यादा होती है। जैसे मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब इन राज्यों में मूंगफली की फसल को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। 

राजस्थान में लगभग मूंगफली की खेती 3.47 लाख हेक्टेयर क्षेत्रों में होती हैं। मूंगफली का उत्पादन करीब 6.81 लाख टन होता है। मूंगफली के भारी उत्पादन से आप इस फसल की उपयोगिता का अंदाजा लगा सकते हैं।

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मूंगफली की खेती के लिए भूमि को तैयार करना:

सबसे पहले खेतों की जुताई कर लेना चाहिए। खेतों की जुताई करते वक्त जल निकास की व्यवस्था को उचित ढंग से बनाना चाहिए। 

मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए। खेतों के लिए दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सबसे सर्वोत्तम मानी जाती है भूमि उत्पादन के लिए, खेतों को मिट्टी पलटने वाले हल और उसके बाद कल्टीवेटर से अच्छी तरह से दो से तीन बार खेतों की जुताई कर लेनी चाहिए। 

भूमि को पाटा लगाकर अच्छी तरह से समतल कर लेना उचित होता है। मूंगफली की फसल में दीमक और कीड़े लगने की संभावना बनी रहती है। मूंगफली की फसल को दीमक और कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए क्विनलफोस 1.5 प्रतिशत 25 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से भूमि की आखिरी जुताई के दौरान अच्छी तरह से भूमि में मिला देना चाहिए। 

मूंगफली की फसल के लिए बीज का चयन:

किसान मूंगफली की बुवाई मानसून के शुरुआती महीने में करना शुरू कर देते हैं। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार भारत में करीब 15 से 20 जून से लेकर 15 से 20 जुलाई के बीच मूंगफली की फसल की बुवाई होती है।

किसान मूंगफली की फसल के लिए दो तरह की बीज का इस्तेमाल करते हैं। पहली कम फैलने वाली बीज की किस्म जो लगभग 75 से 80 किलोग्राम प्रति हेक्टर होती है। और वहीं दूसरी ओर फैलने वाली बीज की किस्म जो लगभग 60 से 70 किलोग्राम प्रति हेक्टर इस्तेमाल किया जाता है। 

बुवाई के लिए स्वस्थ फल्लियाँ और प्रमाणित बीज का चयन करना उचित रहता है। किसान बीज बोने से पहले 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम मेन्कोजेब या कार्बेण्डिजिम दवा 1 किलो प्रति बीज के हिसाब से उपचारित करते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा बीज में अंकुरण अच्छे ढंग से होता है। मूंगफली बीजों की इन दो किस्मों की बुवाई अलग-अलग ढंग से की जाती है। 

मूंगफली की फसल के लिए खाद और उर्वरक का इस्तेमाल:

किसान उर्वरक का इस्तेमाल भूमि की उर्वराशक्ति को देखते हुए और मूंगफली की कौन सी किस्म बोई गई है इसके आधार पर करते हैं। मूंगफली एक तिलहनी फसल है, इस प्रकार मूंगफली की फसल को नाइट्रोजनधारी उर्वरक की जरूरत होती है। 

खेत को तैयार करते वक्त उर्वरकों की अच्छी मात्रा भूमि में मिक्स करें। खेतों की बुवाई करने से लगभग 20 से 25 दिन पहले ही कम्पोस्ट और गोबर की खाद को 8 से 10 टन प्रति हेक्टर को पूरे खेत में अच्छी तरह से बिखेर कर फैलाकर मिला देना आवश्यक होता है। 250 किलोग्राम जिप्सम प्रति हैक्टर का इस्तेमाल करने से काफी अधिक मूंगफली का उत्पादन होता है।

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मूंगफली की फसल की सिंचाई:

मूंगफली की फसल को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती हैं, क्योंकि यह एक खरीफ फसल होती है। मूंगफली की फसल की सिंचाई बारिश पर ही पूर्व से आधारित होती है। 

मूंगफली की फसल की जल्दी बुवाई के लिए पलेवा का उपयोग करें। मूंगफली की फसल में फूल अगर सूखे नजर आए हैं तो जल्दी ही सिंचाई करना आवश्यक होता है।सिंचाई करने से फलियां अच्छे से बड़ी और खूब भरी हुई नजर आती है।

किसानों के अनुसार फलियों का उत्पादन जमीन के भीतर होता है और काफी ज्यादा टाइम तक पानी भरने से फलियां खराब भी हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में जल निकास की व्यवस्था को बुवाई के वक्त विकसित करना उचित होता। 

इस प्रक्रिया को अपनाने से बारिश के दिनों में पानी खेतों में नहीं भरने पाते और ना ही फसल को किसी भी तरह का कोई नुकसान होता है। 

मूंगफली की फसल में निराई गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण:

मूंगफली की फसल के लिए सबसे महत्वपूर्ण निराई गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण होता है। निराई गुड़ाई की वजह से फसलों में अच्छा उत्पादन होता है। बारिश के दिनों में खरपतवार ढक जाते हैं खरपतवार पौधों को किसी भी प्रकार से बढ़ने नहीं देते हैं। 

फसलों को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए कम से कम दो से तीन बार खेतों में निराई और गुड़ाई करनी चाहिए। पहली निराई गुड़ाई फूल आने के टाइम करें और दूसरी लगभग 2 से 3 सप्ताह बात करें। जब नस्से भूमि के भीतर प्रवेश करने लगे। इस प्रक्रिया को अपनाने के बाद कोई और निराई गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती हैं।

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मूंगफली फसल की कटाई का उचित समय:

किसानों के अनुसार जब पौधों की पत्तियां पीली रंग की नजर आने लगे तो कटाई की प्रक्रिया को शुरू कर दें। मूंगफली की फलियों को पौधों से अलग करने के बाद कम से कम 8 से 10 दिन तक उन्हें खूब अच्छी तरह से सुखा लेना आवश्यक होता है। 

मूंगफली की फलियों को किसान लगभग तब तक सुखाते हैं जब तक उनमें 10% नमी ना बचे। इस प्रतिक्रिया को किसान इसलिए अपनाते हैं क्योंकि नमी वाली फलियों को इकट्ठा या भंडारित करने से उन में विभिन्न प्रकार की बीमारियों का प्रकोप बना रहता है। 

खासकर सफेद फंफूदी जैसे रोग पैदा हो सकते हैं। मूंगफली की कटाई करने के बाद इन तरीकों को अपनाना आवश्यक होता है। 

दोस्तों हम उम्मीद करते हैं आपको हमारा यह आर्टिकल मूंगफली की बुवाई पसंद आया होगा। हमारे इस आर्टिकल में मूंगफली की बुवाई से जुड़ी सभी प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारी मौजूद हैं। 

यदि आप हमारी जानकारियों से संतुष्ट हैं। तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों और सोशल मीडिया पर शेयर करें। धन्यवाद।

Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको इस लेख में मूंगफली की खेती के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। परंपरागत फसलों के तुलनात्मक मूंगफली को ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल माना जाता है। यदि किसान मूंगफली की खेती वैज्ञानिक ढंग से करते हैं, तो वह इस फसल से ज्यादा उत्पादन उठाकर बेहतरीन मुनाफा कमा सकते हैं। बतादें, कि खरीफ सीजन के फसल चक्र में मूंगफली की खेती का नाम सर्वप्रथम आता है। भारत के कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में प्रमुख तौर पर मूंगफली की खेती की जाती है। 

मूंगफली की खेती

यदि आप मूंगफली का उत्पादन करके बेहतरीन पैदावार से ज्यादा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, तो मूंगफली की खेती कब और कैसे करनी चाहिए,
मूंगफली की बुवाई का समुचित समय क्या है? मूंगफली की उन्नत किस्म कौन सी है? मूंगफली हेतु बेहतर खाद व उर्वरक आदि से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी आपको होनी ही चाहिए। तब ही आप मूंगफली की उन्नत खेती कर सकेंगे। मूंगफली की उन्नत खेती करने के इच्छुक किसानों को इस लेख को आखिर तक अवश्य होंगे। 

मूंगफली की खेती किस इलाके में की जाती है

मूंगफली को तिलहनी फसलों की श्रेणी में रखा गया है, जो ऊष्णकटबंधीय इलाकों में बड़ी ही सुगमता से उत्पादित की जा सकती हैं। जो किसान मूंगफली की खेती करने की योजना बना रहे हैं, उनको इस लेख को ध्यानपूर्वक पूरा पढ़ना चाहिए। इस लेख में किसानों को मूंगफली की उन्नत खेती किस प्रकार करें? इस विषय में विस्तृत रूप से जानकारी दी जाएगी। 

मूंगफली की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु कौन-सी है

मूंगफली की खेती करने के लिए अर्ध-उष्ण जलवायु सबसे बेहतर मानी जाती है। इसकी खेती से बेहतरीन उत्पादन पाने के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की जरुरत होती है। मूंगफली फसल के लिए 50 से 100 सेंटीमीटर बारिश सर्वोत्तम मानी जाती है।

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मूंगफली की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

मूंगफली की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, मूंगफली की फसल से बेहतरीन पैदावार लेने के लिए बेहतरीन जल निकासी और कैल्शियम एवं जैव पदार्थो से युक्त बलुई दोमट मृदा सबसे उपयुक्त मानी गई है। इसकी खेती के लिए मृदा पीएच मानक 6 से 7 के मध्य होना आवश्यक है। 

मूंगफली फसल के लिए खेत की तैयारी

मूंगफली की खेती के लिए प्रथम जुताई मृदा पलटने वाले हल कर खेत को कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें। जिससे कि उसमें उपस्थित पुराने अवशेषों, खरपतवार एवं कीटों का खत्मा हो जाये। खेत की आखिरी जुताई करके मृदा को भुरभुरी बनाकर खेत को पाटा लगाकर समतल कर लें। खेत की अंतिम जुताई के दौरान 120 कि.ग्रा./एकड़ जिप्सम/फास्फोजिप्सम उपयोग करें। दीमक एवं अन्य कीड़ों से संरक्षण के लिए किनलफोस 25 किग्रा एवं निम की खली 400 किग्रा प्रति हैक्टेयर खेत में डालें। 

भारत के अंदर मूंगफली की खेती के लिए विभिन्न किस्में मौजूद हैं, जो कि निम्नलिखित हैं।

फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-382 (दुर्गा), एम-13, एम ए-10, आर एस-1 और एम-335, चित्रा इत्यादि। 

मध्यम फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-425, गिरनार-2, आर एस बी-87, एच एन जी-10 और आर जी-138, इत्यादि।

झुमका वैरायटी:- ए के-12 व 24, टी जी-37ए, आर जी-141, डी ए जी-24, जी जी-2 और जे एल-24 इत्यादि। 

मूंगफली के बीज की क्या दर होनी चाहिए

मूंगफली की गुच्छेदार प्रजातियों के लिए 100 कि.ग्रा. और फैलने वाली प्रजातियों के लिए 80 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर की दर से जरुरी होता है।  

मूंगफली के बीज को किस प्रकार उपचारित किया जाए

मूंगफली के बीज का समुचित ढंग से अंकुरण करने के लिए बीज को उपचारित अवश्य कर लें। कार्बोक्सिन 37.5% + थाइरम 37.5 % की 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से या 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम + ट्राइकाडर्मा विरिडी 4 ग्रा./कि.ग्रा. के अनुरूप बीज को उपचारित किया जाए। 

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मूंगफली की बुआई किस प्रकार से की जाए

मूंगफली की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय जून के द्वितीय सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जा सकती है। मूंगफली का बीजारोपण रेज्ड बेड विधि द्वारा करना चाहिए। इस विधि के अनुरूप बुवाई करने पर 5 कतारों के उपरांत एक-एक कतार खाली छोड़ते हैं। झुमका किस्म:- झुमका वैरायटी के लिए कतार से कतार का फासला 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की फासला 10 से.मी. आवश्यक होता है। विस्तार किस्मों के लिए:- विस्तार किस्मों के लिए कतार से कतार का फासला 45 से.मी. वहीं पौधे से पौधे का फासला 15 सें.मी. रखें। बीज को 3 से 5 से.मी. की गहराई में ही बोयें। 

मूंगफली की खेती में खरपतवार नियंत्रण

मूंगफली फसल में सत्यानाशी, कोकावा, दूधघास, मोथा, लकासा, जंगली चौलाइ, बनचरी, हिरनखुरी, कोकावा और गोखरू आदि खरपतवार प्रमुख रूप से उग जाते हैं। इनकी रोकथाम करने के लिए 30 और 45 दिन पर निदाई-गुड़ाई करें, जिससे कि खरपतवार नियंत्रण मूंगफली की जड़ों का फैलाव अच्छा होने के साथ मृदा के अंदर वायु का संचार भी हो जाता है। 

मूंगफली की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन

जायद की फसल के लिए सिचाई – बतादें कि प्रथम सिंचाई बुवाई के 10-15 दिन उपरांत, दूसरी सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन के उपरांत एवं तीसरी फूल एवं सुई निर्माण के वक्त, चौथी सिचाई 50-75 दिन उपरांत मतलब फली बनने के समय तो वहीं पांचवी सिचाई फलियों की प्रगति के दौरान (75-90 दिन बाद) करनी जरूरी होती है। यदि मूंगफली की बुवाई वर्षाकाल में करी है, तब वर्षा के आधार पर सिंचाई की जाए। 

मूंगफली की फसल में लगने वाले कीट

रस चूसक/ पत्ती सुरंगक/ चेपा/ टिक्का/ रोजेट/फुदका/ थ्रिप्स/ दीमक/सफेद लट/बिहार रोमिल इल्ली और मूंगफली का माहू इत्यादि इसकी फसल में विशेष तौर पर लगने वाले कीट और रोग हैं। 

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मूंगफली की खुदाई हेतु सबसे अच्छा समय कौन-सा होता है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि मूंगफली के पौधों की पत्तियों का रंग पीला होने लग जाए। फलियों के अंदर के टेनिन का रंग उड़ जाए और बीज का खोल रंगीन हो जाने के उपरांत खुदाई करें। खुदाई के दौरान खेत में हल्की नमी होनी चाहिए। बतादें, कि भंडारण और अंकुरण क्षमता स्थिर बनाये रखने के लिए खुदाई के उपरांत सावधानीपूर्वक मूंगफली को सुखाना चाहिए। मूंगफली का भंडारण करने से पूर्व यह जाँच कर लें कि मूंगफली के दानो में नमी की मात्रा 8 से 10% प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। 

मूंगफली की खेती में कितना खर्च और कितनी आय होती है

मूंगफली की खेती को बेहतरीन पैदावार देने वाली फसल मानी जाती है। इसकी खेती करने में लगभग 1-2 लाख रुपए तक की लागात आ जाती है। यदि किसानों के हित में सभी कुछ ठीक रहा तो प्रति हेक्टेयर तकरीबन 5-6 लाख की आमदनी की जा सकती है।